शरहद के पार -01-Apr-2023
कविता - शरहद के पार
दहल उठी धरती की मिट्टी
नफरत देख इंसान की,
चली आंधियां बारूदों की
छाती पर, हैवान की।
आग उगलती बंदूकें थी
क्या लंदन, रंगून के ?
क्यों भूखे हैं सभी सभी के
कतरा कतरा खून के।
क्यों बोते हैं बीज नफरती
काटों वाले पेड़ के,
जब-तब जाना है सबको ही
सारी दुनिया छोड़ के।
सरहद खींचे नहीं कभी तुम
नफ़रत बैर क्रोध के,
आंख मूंद के किस सरहद पर
लड़ते बिन अवरोध के।
सरहद का मतलब सीमा है
इंसानियत ईमान की,
पार करो ना इस सरहद को
है धरती इंसान की।
खून खून को क्यों प्यासे हो?
धर्म देश के नाम पर,
कभी मारते मर जाते हो
धड़ से सिर को काट कर।
क्या धरती है उस शरहद की
क्या शरहद इस पार की,
धार चढ़ाते रहते हरदम
उस नंगी तलवार की।
कब समझोगे अपनेपन को
ना डर है भगवान की,
दहल उठी धरती की मिट्टी
नफरत देख इंसान की।
रचनाकार -रामबृक्ष बहादुरपुरी अम्बेडकरनगर यू पी
Milind salve
02-Apr-2023 10:00 PM
बहुत खूब
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अदिति झा
02-Apr-2023 08:03 PM
V nice 👍🏼
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Rajeev kumar jha
02-Apr-2023 11:52 AM
शानदार
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